खामोशिओं के कागज़ बहुत मिले मुझको
नज़र की कलम से इशारों के हर्फ़लिखे न गए
उनसे मिलने का भी ग़म है मुझे
इक तमन्ना का खून होता है
क्या फ़र्क है बस्ती ऐ इंसा या शहर ऐ संग में
या भी पत्थर दिल ही है वा भी पत्थर के ही दिल
Wednesday, October 21, 2009
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